
उत्तराखंड। प्रदेश की राजनीति में इन दिनों खनन एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है।
जहाँ एक ओर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में राज्य सरकार ने खनन से राजस्व में ऐतिहासिक वृद्धि दर्ज की है, वहीं दूसरी ओर इसी खनन को लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी तेज़ हो गए हैं। हाल ही में खनन का मामला सियासी गलियारों से लेकर आमजन की चोपाल में खास चर्चा का विषय बना रहा।विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में विशेषकर हरिद्वार जिले में अवैध खनन के अनेक मामले प्रकाश में आए, लेकिन राजस्व की स्थिति बेहद कमजोर रही।
पूरे प्रदेश से उस समय खनन से केवल ₹350 करोड़ का राजस्व प्राप्त होता था।वर्तमान में धामी सरकार ने एक तरफ जहाँ अवैध खनन पर ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई है, वहीं दूसरी ओर वैध खनन को ई-नीलामी और पारदर्शी प्रणाली से प्रोत्साहित किया है, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व बढ़कर ₹1050 करोड़ तक पहुँच गया है।
यही नहीं, सरकार ने खनन क्षेत्रों में वातावरणीय मानकों का पालन, स्थानीय शिकायतों पर शीघ्र कार्रवाई और भौगोलिक स्थिति के अनुसार खनन योजना लागू कर प्रशासनिक सक्रियता भी दिखाई है।
लेकिन अब कुछ विरोधी दल और पूर्व पदाधिकारी, ‘बाणगंगा पुनर्जीवन’ जैसे अभियानों के माध्यम से सरकार की नीयत पर सवाल उठाने लगे हैं —
जबकि यथार्थ यह है कि जिस क्षेत्र को लेकर आज शोर मचाया जा रहा है, वहाँ अधिकांश स्टोन क्रेशर की अनुमति पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा दी गई थी।प्रश्न उठता है कि क्या पारदर्शी नीति और राजस्व वृद्धि को देखकर कुछ लोग राजनीतिक असहजता महसूस कर रहे हैं?
उत्तराखंड की नई खनन नीति ने यह सिद्ध किया है कि अगर प्रशासनिक इच्छाशक्ति हो, तो खनन भी विकास का आधार बन सकता है — न कि विवाद का।